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काख़🍁🍂

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ख़ाक हुआ सपनों का काख़ शिद्दत,रग़बत से अड्डा था जो डगमगाया एक भी हिस्सा फ़िगार का एहसास हर पल नया था निगाहें- शौक का दो पल मेहमान मशिय्यत नही जुस्तजु थी मेरी तवंगर में उस वक्त और आज भी नहीं पर खवाबों से दोस्ती हुआ करती थी मेरी पुरानी रिवायतें अंजुमन के सहारे मैं नई दौर कि हुई पहेली थी खुद में ही खुद से इतना उलझ गई कि अब सुलझाने कि बस देरी थी सहारे से बेसहारा ठीक ही है उम्मीद का दरवाजा बंद ही रहता है खिड़कियां खुल भी क्यों ना जाए तो दायरा कुछ फासलों का ही रहता है |