यादों का सफर 🙂☹️





काश तेरी ज़िंदगी का
मुदतो तक  रहबर ना सही
निस्फ़ का तुकडा ही होती
ख़लिश सा आज मुझे
महसूस तो ना होता। 

मेरे असहाय शरीर में
तेरी रूह का रंग आज भी
बेशुमार छाया है
मेरे परदानशी क़ल्ब ने
ये फरमान किसी रोज़ जगाया है। 

माना इस निसबत की अज़ल
मैंने ही रखी थी
मगर तकाज़ा इस बात का है
एहसान फरामोश की शतरंज के प्यादो का
हिस्सा मैं तेरे हाथ ही बननी थी। 

वफ़ा से दोस्ती थी मेरी
आज हर कोई बेवफा सा लगता है
मेरे होठ तो मुस्करा भी दे जनाब
मगर इन आँखों से
मेरा रिश्ता साफ़ दिखाता है। 

आज बरख पर लिख कर तुझे
तेरा मोजज़ा  समझ रही हूँ
ना जाने किस कशमकश में
मैं आज भी तुझको अपना समझ रही हूँ। 

मेरे अंदर पिन्हां कर रहे जज्बात
रोजाना कई पूरानी हिकायत बुनती है
यादों की बस्ती में मुझे छोड़
नये जख्मों का रास्ता चुनती है। 

जान-ए-अदा वो शफ़क़
तो याद ही होगी तुम्हें
जिस शमा में असरार बातें हुई थी
इमरोज़ मैं सोच रही थी वहाँ हो आऊँ
मगर मन को जवाज़ करने में नाकाम रह गई। 

क्या मैं तुम्हारे लिए इतनी बेजा़र थी
कि हर वक़्त अनजान बने मशगूल रहते हो
मफ़हूम तो किया होता अपने जहन का
मैं ख़ुल्द का रास्ता भी
तेरे लिए खोलने को भी तैयार बैठी थी। 

ज्यादा फरमान न थे मेरे
बस मोहसिन में तेरा साथ चाहिए था
अब तो जिंदगी भी हमसे बेपरवाह हो गई
मगर ये देख कर के खुश हूँ
के वक़्त के दायरों को तोड़
तू मेरी वफ़ात  मे शामिल तो होने आया था।

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